प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर संवेदनशील हुईं महिलाएं



  • एनएफएचएस-5 के आंकड़ों की मानें तो इसी तरह की जागरूकता दिखाएगी मूलभूत परिवर्तन
  • कम उम्र में गर्भधारण लड़की को शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर करती है   

लखनऊ - प्रदेश की महिलाएं अपने स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हो रही हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के ताजा आंकड़ों में यह परिवर्तन दिखाई भी दे रहा है। इस परिवर्तन के पीछे प्रदेश सरकार द्वारा चलाई जा रही कई स्वास्थ्य योजनाओं ने भी अहम किरदार निभाया है। जरूरत है इस मोमेंटम को बनाए रखने की और अगर ऐसा हुआ तो आने वाले दिनों में महिलाओं के स्वास्थ्य में मूलभूत परिवर्तन देखने को मिलेगा।
 
हाल में जारी एनएफएचएस-5 के आंकड़े इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि प्रजनन, पोषण, मातृ, शिशु एवं बाल विकास को लेकर उनकी स्थिति में सुधार हुआ है। बाल विवाह की दर में गिरावट को भी महिला स्वास्थ्य के लिहाज से अहम माना जा रहा है।

प्रदेश सरकार ने प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरसीएच) के तहत कई योजनाएं चलाईं जिसका असर देखने को मिला है। जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) और राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरकेएसके) प्रसूताओं और किशोरों के लिए वरदान साबित हुए हैं। सुरक्षित मातृत्‍व आश्‍वासन (सुमन) पहल को गर्भवती महिलाओं के लिए शुरू किया गया ताकि उन्‍हें सम्‍माजनक और गुणवत्‍तापूर्ण नि:शुल्‍क स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं प्रदान की जाएं और इसमें किसी तरह की कोई कोताही नहीं बरती जाए। इस योजना में मातृत्‍व और नवजात शिशु संबंधी वर्तमान योजनाओं को शामिल किया गया है।

बाल विवाह में आई कमी : बाल विवाह कम होने से कम उम्र में मां बनने वाली महिलाओं की संख्या में भी गिरावट आई है। एनएफएचएस-4 और एनएफएचएस-5 के आंकड़ों में तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि वर्ष 2015-16 में 15 से 19 वर्ष आयु की 3.8 फीसदी महिलाएं या तो मां बन जाती थीं या फिर गर्भवती हो जाती थीं लेकिन वर्ष 2020-21 में इसी आयु वर्ग की महिलाओं के संबंध में यह आंकड़ा घटकर 2.9 प्रतिशत रह गया है। क्वीन मेरी अस्पताल की प्रोफेसर डॉ. सुजाता देव के मुताबिक कम उम्र में गर्भधारण लड़की के लिए शारीरिक या मानसिक तौर पर सही नहीं होता है। इसलिए कम उम्र में गर्भावस्था की स्थिति को खारिज किया जाना चाहिए। कम उम्र में गर्भधारण करने से प्रजनन तंत्र को भी नुकसान पहुंच सकता है। ऐसे में मां और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है।

किशोरी के गर्भधारण के साथ ही उसे डायबिटीज समेत कई अन्य तरह की स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। कम उम्र में मां बनने पर बच्चे के प्रीमेच्योर होने की आंशका बढ़ जाती है। इसके साथ ही बच्चे का वजन भी कम हो जाता है और बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास भी प्रभावित हो सकता है। कम उम्र में मां बनने से करियर ग्रोथ पर भी असर पड़ता है जिसके चलते मां तनाव में आ सकती है। प्रसव के दौरान होने वाली पीड़ाएं स्थाई रह सकती हैं। किसी भी प्रकार का संक्रमण हो सकता है या गर्भाशय के फटने की आशंका भी हो सकती है।

एनिमिया को लेकर आई सजगता : बीते पांच साल में एनीमिया यानि खून की कमी की गंभीरता को भी महिलाओं ने समझा है। एनएफएचएस-4 के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015-16 में 15 से 49 साल आयु वर्ग की 51 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं खून की कमी से जूझ रहीं थीं जो वर्ष 2020-21 में घटकर 45.9 फीसदी रह गईं। 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग में गर्भावस्था के दौरान 180 दिन आयरन फालिक एसिड खाने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी बढ़ा है। वर्ष 2015-16 में ऐसी महिलाएं 14 फीसद थीं जो वर्ष 2019-21 में बढ़कर 26 प्रतिशत हो गईं।