लखनऊ, 17 मार्च 2021 - “टूटने लगें हौंसले तो बस यह याद रखना, बिना मेहनत के हासिल तख्तो ताज नहीं होता, ढूंढ लेना अंधेरे में मंजिल अपनी, जुगनू कभी रोशनी का मोहताज नहीं होता”- यह पंक्तियाँ उस आधी आबादी (आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता) के सम्मान को दर्शाती हैं जिन्होंने कोरोना काल में शहरों और गाँव में मोर्चा संभाल रखा था, - वह थीं आशा कार्यकर्ता | अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च ) पर समाज की तरफ से इस महिला शक्ति को सलाम तो बनता है |
कोरोना काल में आशा कार्यकर्ता जिन्हें सबसे महत्वूर्ण काम सौंपा गया था, वह था की लॉकडाउन के दौरान क्षेत्र में वापस आये लोगों की पहचान कर उन्हें क्वेरेंटाइन केन्द्रों पर भेजना | ऐसे लोगों के परिवारों को आवश्यक हिदायत देना जिसे उन्होंने बखूबी निभाया | साथ ही समुदाय को इस बीमारी से बचाव के लिए जागरूक करना , जिसका यह परिणाम रहा कि देश की अधिकांश आबादी कोरोना से अछूती रही | यह जिम्मेदारी तो उन्होंने बखूबी निभाई लेकिन साथ में वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति भी सजग रहीं | कोरोना कहीं उनके या उनके परिवार वालों को न हो जाए यह डर उन्हें भी सताता रहा लेकिन कोरोना से बचाव के प्रोटोकॉल का पालन करते हुए उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया |
काकोरी ब्लाक के कठिंगरा क्षेत्र की आशा कार्यकर्ता कुसुमा बताती हैं – कोरोना काल में हम जब काम करने के लिए घर से बाहर निकले तो हमें बिलकुल भी डर नहीं लगा | जब काम करना ही है तब डर किस बात का | मैं कोरोना उपचाराधीन भी रही लेकिन ठीक होने के बाद भी मैंने उसी उत्साह के साथ दोबारा फील्ड पर काम करना शुरू किया |
आशा कार्यकर्ता मंजू कहती हैं – जब लोगों की सेवा के उद्देश्य से काम करने का प्रण लिया है तो लिया है | कोई भी परिस्थिति हो हमें काम करना है | डर जाते तो काम कैसे करते | हम नहीं होते तो कोई और काम करता | हम खुशकिस्मत हैं कि हमने कोरोना काल में देश हित में काम किया |
माल ब्लाक के ससपन क्षेत्र की आशा कार्यकर्ता रानी बताती हैं – हमने सावधानी बरतते हुए कोरोना के समय काम किया | वह आज भी कर रहे हैं | लॉकडाउन के दौरान काम करना आसान नहीं था | लोग बात करना भी पसंद नहीं करते थे लेकिन धैर्य के साथ लोगों को समझाया, मेहनत तो लगी लेकिन धीरे-धीरे लोग हमारी बातों को सुनने लगे और मानने भी लगे |