नई दिल्ली(डेस्क) - प्रतिवर्ष 11 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन दुनियाभर में लड़कियों की आवाज़, उनके अधिकारों और नेतृत्व को सम्मान देने का एक महत्वपूर्ण वैश्विक मंच है। इस वर्ष 2025 की थीम है - “मैं जो लड़की हूं, मैं जो बदलाव लाती हूं'' संकट के अग्रिम मोर्चे पर लड़कियां। यह थीम दुनिया भर में सक्रिय बालिकाओं के नेतृत्व वाले संगठनों द्वारा तैयार की गई है, जो विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकटों में लड़कियों की अग्रणी भूमिका को पहचान दिलाने का आह्वान करती है।
UNICEF के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, आज भी विश्वभर में 122 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हैं, जिनमें 34 मिलियन प्राथमिक और 87 मिलियन माध्यमिक स्तर की छात्राएं शामिल हैं। वहीं, श्रम क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी अभी भी पुरुषों की तुलना में कम है।
दक्षिण एशिया में यह आंकड़ा सिर्फ 26%, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में 20%, लैटिन अमेरिका में 53%, और पूर्वी एशिया में 59% दर्ज किया गया है। यह स्पष्ट करता है कि वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता की दिशा में अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।
बीजिंग महिला अधिकार दस्तावेज के 30 वर्ष पूरे होने पर यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में उस समानता को हासिल कर पाए हैं जिसकी कल्पना की गई थी?
हालांकि यह जरूर देखने को मिल रहा है कि आज की लड़कियां जलवायु परिवर्तन, लैंगिक हिंसा और मानवाधिकारों जैसे मुद्दों पर खुलकर आवाज़ उठा रही हैं। वे अब सिर्फ समस्याओं का हिस्सा नहीं, बल्कि समाधान का नेतृत्व भी कर रही हैं।
भारत हमेशा से लड़कियों को सशक्त बनाने की दिशा में अग्रणी रहा है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना जैसी पहलों ने लड़कियों को शिक्षा, सुरक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में मजबूत आधार दिया है। सरकार की इन नीतियों का असर ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में भी दिख रहा है, जहां भारत की रैंकिंग में लगातार सुधार हो रहा है।
दुनिया भर में यूनिसेफ, बालिकाओं के नेतृत्व वाले समूहों और नेटवर्क्स के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया के निर्माण की दिशा में काम कर रहा है जहाँ नीति निर्माण, कार्यक्रमों और मानवीय प्रतिक्रियाओं में लड़कियों की आवाज़ न केवल सुनी जाए, बल्कि उस पर प्रभावी ढंग से अमल भी हो।